संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन : वस्तुस्थिति व अपेक्षाएँ

Asit K. Biswas and Cecilia Tortajada

WATER SCIENCE POLICY | March 13, 2023

1970 के दशक में संयुक्त राष्ट्र ने समस्याओं की तीव्रता व सीमाओं के प्रति वैश्विक जागरुकता बढ़ाने के लिए तथा उन्हें हल करने की रणनीतियाँ बनाने के लिए विशिष्ट विषयों पर उच्च राजनीतिक स्तरों पर विश्व सम्मेलनों की एक कड़ी आयोजित की। इन सम्मेलनों के विषय जटिल थे और कोई भी राष्ट्र उन्हें व्यक्तिगत रूप से हल नहीं कर सका।

नए प्रकार के यह पहले प्रमुख सम्मेलन का केंद्रबिन्दु था 1972 में स्टॉकहोम में मानवीय परिवेश। इसके बाद के क्रम में जल्दी-जल्दी कई अन्य मिलती-जुलती उच्चस्तरीय वैश्विक बैठकें हुईं जिनके विषय थे जनसंख्या (बुखारेस्ट, 1974), खाद्य (रोम, 1974), महिलाएँ (मेक्सिको शहर, 1975), मानव बस्तियाँ (वैंकूवर, 1976), जल (मार डेल प्लेटा, 1977), मरूस्थलीकरण (नैरोबी, 1977), विकास हेतु विज्ञान व प्रौद्योगिकी (विएना, 1979), तथा नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत (नैरोबी, 1981)। इस संपादकीय के एक सह-लेखक, प्रोफ़ेसर बिस्वास ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक के वरिष्ठ वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर इन सभी सम्मेलनों में शिरकत की थी।

लगभग इन सभी सम्मेलनों की शुरुआत और फिर सक्रीय रूप से इनका प्रचार-प्रसार किसी सरकार या सरकारों द्वारा किया गया और फिर अंततः इन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा की मंजूरी मिली। उदाहरण के तौर पर, मानवीय परिवेश पर हुए सम्मेलन को सुझाव व उसे बढ़ावा स्वीडन द्वारा दिया गया था। बाद में इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा की मंजूरी मिल गई।

इस परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो जल सम्मेलन एक विसंगति थी। इस सम्मेलन का विचार किसी सरकार द्वारा नहीं, बल्कि तीन उल्लेखनीय वरिष्ठ कर्मचारियों से उपजा था जिन्होंने इस विचार को सबके सामने रखा तथा देशों से इसे प्रस्तावित कराने व अंततः इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा से मंजूर कराने में सफल रहे। व्लादिमीर बाउम, एन्ज़ो फ़ानो, और अलगप्पा अलगप्पन की यह तिकड़ी दरअसल संयुक्त राष्ट्र की ही अब निष्क्रीय हो चुकी संस्था, सेंटर फॉर नैशनल रिसोर्सेज़, एनर्जी ऐंड ट्रांस्पोर्ट, के वरिष्ठ पदाधिकारी थे।

जल सम्मेलन की पहली प्रस्तावना, संयुक्त राष्ट्र प्राकृतिक संसाधन समिति द्वारा आधिकारिक रूप से 1971 में रखी गई थी। फिर 1973 में इसे संयुक्त राष्ट्र आर्थिक व सामाजिक परिषद द्वारा भी अनुमोदित किया गया। 3513 (XXX) संकल्प के तहत, अंततः संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा दिसंबर 1975 में इसका समर्थन किया गया।

सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तैयारी के स्तर को बढ़ावा देना था जिससे विश्व को वर्ष 2000 तक वैश्विक आयामों वाली एक जल आपदा से बचने में मदद मिलती। निश्चित तौर पर यह एक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य था; ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि न केवल निरंतर वृद्धिशील व शहरीकृत होती जा रही इस विश्व की जनसंख्या की ज़रूरतों को पूरा करने हेतु यह सुनिश्चित किया जा सके कि दुनिया के पास अच्छी गुणवत्ता वाले जल की पर्याप्त आपूर्ति हो, बल्कि दो दशक के कम समय में ही सभी लोगों के लिए बेहतर आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियाँ भी मुहैया कराई जा सकें।

संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक व सामाजिक परिषद ने पूरे करने हेतु कुछ निश्चित कार्य सम्मेलन को सौंपे। इनमें शामिल हैं :

● जल संसाधन विकास व जल के उपयोग संबंधी अनुभवों का आदान-प्रदान;

● नई प्रौद्योगिकियों की समीक्षा;

● जल क्षेत्र में अधिक से अधिक सहकार्य प्रेरित करना;

● जब जल की आपूर्ति स्थिर हो तब उसकी मांग को बढ़ाकर उठनेवाली समस्याओं पर विस्तृत चर्चा करना; तथा

● जल संसाधन की आयोजना व विकास के निश्चित आर्थिक व प्रशासनिक के साथ-साथ तकनीकी पहलुओं पर भी विचार करना, जो मुख्य रूप से जल संबंधी नीति-निर्माताओं की ओर केन्द्रित हों।

अर्जेन्टीना के मार डेल प्लेटा में 14-25 मार्च 1977 को जल सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें 116 सरकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की। राष्ट्रीय प्रतिनिधायन वाली इस शानदार बहुसंख्या की अगुवाई, जल हेतु जवाबदेह मंत्रियों द्वारा की गई।

अमंगलकारी शुरुआत

हालांकि जल संबंधी ऐसा प्रमुख व व्यापक वैश्विक विमार्च काफ़ी समय से लंबित था, सम्मेलन को आयोजित करने की शुरुआती तैयारियों में फिर भी शायद कुछ कसर बाकी थी। सामान्यतः 1972 से 1981 के बीच संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित किए गए सभी विश्व सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र की प्रणाली से बाहर के उच्च राजनीतिक स्तर पर विशेष महासचिव रहे हैं, जिनकी नियुक्ति संयुक्त राष्ट्र के महासचिव द्वारा सहायक महासचिव के स्तर पर ऐसे सम्मेलनों को आयोजित करने हेतु की गई थी। जब जल सम्मेलन की मंजूरी दी गई तब संयुक्त राष्ट्र का महासचिव कर्ट वाल्डहाइम थे। दुर्भाग्यवश, उनकी जल में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

जल सम्मेलन को मंजूरी मिलने के कुछ ही समय बाद वाल्डहाइम को एक राजनीतिक पसोपेश का सामना करना पड़ा। कार्मिक संभाग के जवाबदेह उनके एक सहायक महासचिव नैतिकता संबंधी कुछ बड़े मामलों में शामिल पाए गए। वाल्डहाइम को यह राजनीतिक स्तर पर उचित लगा कि उन्हें बर्खास्त न करके किनारे कर दिया जाए ताकि बाद में वह जल सम्मेलन के महासचिव बन सकें, फिर भले ही जल के संबंध में उनकी कोई भी पृष्ठभूमि न रही हो।

संयुक्त राष्ट्र के सभी विश्व सम्मेलनों के लिए खास बजट आबंटित होते हैं। 1976 की शुरुआत तक, बैठक से मात्र एक वर्ष पहले ही, वाल्डहाइम सहित हर किसी को यह स्पष्ट था कि खराब नेतृत्व व प्रगति की कमी के चलते जल सम्मेलन एक बड़ी विफलता की ओर बढ़ रहा था। अंततः वाल्डहाइम को कड़वा घूँट पीते हुए सम्मेलन के लिए एक नए महासचिव को चुनना पड़ा।

अच्छी बात यह रही कि दूसरी बार वाल्डहाइम ने एक शानदार व्यक्ति, याहिया अब्देल मगीद को चुना जो उस समय सूडान में इरिगेशन ऐंड हाइड्रोपावर डेवलपमेंट के मंत्री थे। मई 1976 के उत्तरार्द्ध में उनकी नियुक्ति तब हुई जब एक उच्च निर्णयन स्तर पर प्रमुख वैश्विक बैठक होने में करीब नौ माह शेष थे।

कार्यभार संभालने के बाद मगीद को यह एहसास हो गया कि पिछले महासचिव ने तो सम्मेलन का काफ़ी बजट दुनियाभर में घूमने और उन लोगों को अनुबंध देने पर ही खर्च कर दिया जिन्हें जल के बारे में कुछ खास जानकारी नहीं थी। इस तरह से वित्तीय व तकनीकी, दोनों ही स्तरों पर सम्मेलन मुश्किल में था और उसे आयोजित करने के लिए बहुत ही कम समय शेष था।

उस रात मगीद ने नैरोबी में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तत्कालीन प्रमुख, डॉ. मुस्तफ़ा कमाल तोलबा से मुलाक़ात की। इस संपादकीय के एक सह-लेखक, डॉ. बिस्वास उस समय डॉ. तोलबा के वरिष्ठ वैज्ञानिक सलाहकार हुआ करते थे जिन्होंने उनको और मगीद को एक विस्तारित मध्याह्न भोजन पर आमंत्रित किया। भोजन के दौरान मगीद ने अपनी इस स्थिति के बजट व प्रौद्योगिकी संबंधी दोनों ही पहलुओं से, तथा जल सम्मेलन हेतु तैयारी की कमी से उनको अवगत कराया। तोलबा ने मगीद के समक्ष संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की ओर से पर्याप्त निधीयन सहयोग की पेशकश की तथा श्री बिस्वास से यह अनुरोध किया कि वह मगीद को उनके वरिष्ठ वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर सलाह देने के साथ-साथ सम्मेलन की तकनीकी तैयारी में भी उनकी मदद करें, जिसमें कार्य-योजना का मसौदा तैयार करना भी शामिल था (बिस्वास, 2021)।

मार डेल प्लेटा सम्मेलन

सम्मेलन के अपने शुरुआती उद्बोधन में मगीद (1978) ने ज़ोर देकर कहा कि, “पहली बार ऐसा होगा कि जल विकास संबंधी समस्याओं के जिस स्तर व जटिलता का सामना मानवता को करना पड़ रहा है, उन्हें अपने सम्पूर्ण रूप में एक वैश्विक पटल पर एक प्रणालीगत व विस्तृत ढंग से विमर्श हेतु सामने रखा जाएगा।‘ निम्नलिखित कथन कह कर उन्होंने स्पष्ट रूप से अपना भाषण समाप्त किया :

हमें इतिहास को यह कहने का मौका नहीं देना है कि एक व्यवस्थित ढंग से मानवता की विकासात्मक प्रगति की व्यवस्था करने का सुनहरा मौका इस पीढ़ी के सामने था, मगर जिसे हमने गंवा दिया। अंतिम विश्लेषण पर ध्यान दिया जाए तो इस सम्मेलन की सफलता का माप यहाँ मार डेल प्लेटा में हमारे द्वारा नहीं, बल्कि समय बीतने पर भावी पीढ़ी द्वारा, और उस माप द्वारा किया जाएगा जिसके अनुरूप अगले दो हफ़्तों के दौरान हमारे द्वारा की जानेवाली विवेचना से होगा जिससे अगले दो दशकों में होनेवाली घटनाएँ प्रभावित होंगी। (मगीद, 1978, पृष्ठ 7)

मार डेल प्लेटा के प्रभाव

दुनिया पर पड़नेवाले मार डेल प्लेटा सम्मेलन के प्रभावों का एक गतावलोकी, विस्तृत व वस्तुनिष्ठ वैश्विक आकलन (बिस्वास और टॉर्टायाड़ा, 2009) अपने समग्र रूप में यह इंगित करता है कि जब बैठक वास्तव में आयोजित हुई तब यह इसके अधिकतर उत्साही समर्थकों की अपेक्षाओं के विपरीत कहीं अधिक सफल साबित हुई।

भले ही यह कितना ही आश्चर्यजनक क्यों न लगे, पर सबसे पहले मार डेल प्लेटा ने दृढ़तापूर्वक जल को तत्कालीन राजनीतिक एजेंडा में शामिल किया (बिस्वास, 2019)। यह कुछ ऐसा था जो किसी अन्य जल बैठक में संभव नहीं हो सका था, हालांकि कई समर्थक इससे इतर दावा करते हैं।

इस सम्मेलन का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह रहा कि इससे न केवल जल के विभिन्न पहलुओं, बल्कि देश व क्षेत्र विशेष के विश्लेषणों के बारे में ढेरों नई जानकारी प्राप्त हुई। पहली बार ऐसा हुआ जब कई विकासशील देशों ने जल की उपलब्धता व उपयोग तथा आयोजना संबंधी आवश्यकताओं व प्रबंधन प्रथाओं के व्यापक निर्धारण पर राष्ट्रीय स्तर की विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत कीं। देशों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अपनी जल समस्याओं व उनके संभावित समाधानों पर सम्मेलन हेतु दस्तावेज़ तैयार करें। इन भारी-भरकम दस्तावेज़ों को फिर बाद में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित किया गया (बिस्वास, 1978)। यह संयुक्त राष्ट्र के सभी अन्य सम्मेलनों से काफ़ी अलग था जहां इनसे निकलनेवाली अधिकतर जानकारी व दस्तावेज़, सम्मेलन के समाप्त होते ही गायब हो जाते थे।

सम्मेलन से प्रोत्साहित होकर कई विकासशील देशों ने गतिशीलता संबंधी ऐसी प्रक्रियाएँ अपनाईं जिनसे उनके सतह व भूमिगत जल की उपलब्धता व वितरण के साथ-साथ जल संबंधी मांग व उपयोग के विद्यमान व भावी पैटर्न की निगरानी की जा सके। इनमें से अधिकतर देशों ने न केवल सम्मेलन के बाद इन गतिविधियों को जारी रखा है, बल्कि उत्तरोत्तर ढंग से उन्हें सुदृढ़ भी किया है।

एक अन्य प्रभावशाली परिणाम यह रहा कि 1981-90 की अवधि को अंतर्राष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति व स्वच्छता दशक (IDWSSD) घोषित कर दिया गया। इसके उद्देश्य हर हाल में दुनिया को याद दिलाए रखना था कि करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जिन्हें स्वच्छ जल व साफ़-सफ़ाई उपलब्ध नहीं है, और यह कि इस स्थिति में पर्याप्त सुधार करने के लिए शीघ्र ही राजनीतिक मंशा व निवेश की आवश्यकता थी। IDWSSD ने काफ़ी हद तक इन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस पूरे विकासशील जगत के लाखों-करोड़ों लोगों की जीवन गुणवत्ता में सुधार किया। यह सम्मेलन के सीधे प्रभाव की वजह से ही संभव हो सका था।

मार डेल प्लेटा में हुई प्रगति के बाद

जल सम्मेलन होने के बाद से वैश्विक परिस्थितियाँ काफ़ी बदल चुकी हैं। 1977 में विश्व की जनसंख्या 4.2 बिलियन थी, जो कि अब 8 बिलियन हो चुकी है। 1977 में वैश्विक जनसंख्या वृद्धि दर 1.8% थी, जो कि 2020 तक घट कर 1.05% हो गई, तथा आगे इसके और भी कम होने का ही अनुमान है। 1977 में 38% लोग शहरी इलाकों में रहा करते थे। 2020 तक यह आंकड़ा 57% तक पहुँच गया तथा आनेवाले दशकों में विशेष रूप से विकासशील देशों में इसके अभी और भी बढ़ने के ही आसार नज़र आ रहे हैं। 1977 में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 7.35 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर था। 2021 तक यह बढ़कर 96.1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गया। इसी प्रकार से प्रति व्यक्ति वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद 1977 में 1747 डॉलर से बढ़कर 2021 में 12,663 डॉलर तक पहुँच गया।

इस तरह से 1977 से 2022 के बीच कई सामाजिक संकेतकों में नाटकीय रूप से बदलाव आया। उदाहरण के तौर पर, दुनियाभर में ग़रीबी में जी रहे लोगों की संख्या 1977 से अब तक काफ़ी कम हुई है। 1981 में वैश्विक जनसंख्या का 43.6% ग़रीबी में जी रहा था। 2019 तक यह घट कर मात्र 8.4% रह गया। चीन ने पूरी तरह से अपने यहाँ से गरीबी का उन्मूलन कर दिया था। इसके अतिरिक्त, 1977 में वैश्विक वयस्क (15 वर्ष व उससे अधिक की आयु) साक्षरता दर 67% थी जो कि 2020 तक बढ़कर 87% हो गई। शिशु मृत्यु दर (प्रति 1000 जीवित जन्म में से होनेवाली मृत्यु) 1977 में 86.7% से घट कर 2021 में 27.3% पर पहुँच गई।

इसके अलावा विज्ञान व प्रौद्योगिकी में होनेवाली उन्नतियों सहित मनुष्य के ज्ञान में भी पिछले 45 वर्षों में उल्लेखनीय प्रगति देखने को मिली है। इसमें जल प्रबंधन प्रथाओं व प्रक्रियाओं के साथ-साथ जल संबंधी प्रौद्योगिकीय विकास में होनेवाली प्रगति भी शामिल है। अतः भले ही प्रभाव की दृष्टि से मार डेल प्लेटा एक उल्लेखनीय वैश्विक सम्मेलन रहा, जल जगत और वैश्विक स्थितियों में भी काफ़ी बदलाव देखने को मिला। इसका मतलब है कि दुनिया के साथ-साथ देशों को भी अपने-अपने स्तर पर भविष्योन्मुखी नई योजनाएँ बनाने की आवश्यकता है ताकि आनेवाले दशकों में जल की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। यह भी है कि 1977 में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नहीं था, जबकि आज यह स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि राष्ट्रीय व वैश्विक जल सुरक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चुनौती खड़ी कर रहा है।

अतः आदर्श रूप में तो कम से कम कुछ 20 वर्ष पूर्व ही उच्च नीति-निर्माण स्तरों पर एक अन्य संयुक्त राष्ट्र वैश्विक जल सम्मेलन आयोजित कर लिया जाना चाहिए था, ताकि एक नया व अद्यतन कार्य-योजना तैयार करके विश्व की बदलती जल समस्याओं से निपटने हेतु कार्यान्वित की जा सकती।

बहरहाल, पिछले 45 वर्षों से एक दूसरा संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन आयोजित करने पर कोई भी गंभीर चर्चा नहीं हुई है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, क्योंकि उसी संयुक्त राष्ट्र ने जनसंख्या, खाद्य, पर्यावरण, महिलाओं, व मानव बस्तियों पर प्रमुख विश्व सम्मेलन भी आयोजित किए और उन पर अद्यतन कार्य-योजनाएँ भी तैयार की गईं।

बल्कि जल सम्मेलन पर कोई भी अनुवर्ती कार्रवाई न होना अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा में जल को लेकर लापरवाही की ओर इशारा करता है। कुछ हद तक तो यह विकसित राष्ट्रों की इस ग़लतफ़हमी के कारण भी है कि उनकी जल समस्याएँ एक शताब्दी पहले ही हल की जा चुकी हैं; और यह कि जल समस्याएँ केवल विकासशील देशों में ही हैं (बिस्वास और टॉर्टयाड़ा, 2008)। यह मनःस्थिति, अलबत्ता धीरे-धीरे ही सही, मगर अब बदल रही है।

कई जल संस्थान व प्रोफ़ेशनल वर्तमान में इस बात पर उत्साहित हैं कि 22-24 मार्च 2023 के दौरान संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक दूसरा जल सम्मेलन आयोजित किया जाएगा। दुर्भाग्यवश, मार डेल प्लेटा के विपरीत, इस सम्मेलन में विश्व की मौजूदा व भावी जल समस्याओं का समग्र रूप में कोई आकलन नहीं किया जाएगा और न ही अगले 20 वर्षों के दौरान इन समस्याओं को दूर करने हेतु किसी कार्य-योजना पर कोई सहमति बनेगी। इस प्रस्तावित बैठक का मुख्य उद्देश्य तो “संधारणीय विकास हेतु जल”, 2018-2028 विषय पर दशक की अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई के क्रियान्वयन की एक मध्यावधि व्यापक समीक्षा करने तक ही सीमित रहेगा।

इसके साथ थी, किसी भी अन्य संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के विपरीत, यह दो सप्ताह का न होकर तीन दिवसों का ही होगा। इसका मतलब है कि इसमें मौजूदा व भावी जल संबंधी मामलों पर विमर्श हेतु पर्याप्त समय नहीं होगा। इस प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने हेतु सम्मेलन में कोई विशेष स्वतंत्र सहायक महासचिव भी नहीं होगा। न्यू यॉर्क में होनेवाली बैठक की सह-मेज़बानी तजाकिस्तान और नीदरलैंड द्वारा की जा रही है।

जल संबंधी कई महत्त्वपूर्ण मामलों पर शायद ही कोई गंभीर चर्चा होगी। उदाहरण के तौर पर ऑस्ट्रेलिया, कनाडा या अमेरिका जैसे कई विकसित देशों में कई मिलियन मूल निवासी ऐसे हैं जिनके लिए अब तक स्वच्छ जल या उचित साफ़-सफ़ाई उपलब्ध नहीं है। अमेरिका में 2 मिलियन से भी अधिक लोगों के पास घर में पानी आने की व्यवस्था नहीं है और जो जल उन्हें प्राप्त होता है उसकी गुणवत्ता भी संतोषजनक नहीं है। ब्राज़ील, भारत मेक्सिको और दक्षिण अफ़्रीका जैसे कई प्रमुख विकासशील देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है। हालांकि बहुत ही कम संभावना है इसकी कि न्यू यॉर्क में होनेवाले जल सम्मेलन में इन मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा।

इस बात की भी कोई संभावना नहीं नज़र आती कि न्यू यॉर्क में होनेवाली बैठक में स्वच्छ जल या उचित साफ़-सफ़ाई की उपलब्धता संबंधी वैश्विक डेटा पर कोई ध्यान दिया जाएगा, या फिर कि अंतर्राष्ट्रीय समुदायों की अव्यवस्थित, या कभी-कभी अर्थहीन-सी लगनेवाली परिभाषाओं की प्राथमिकता पर ही कोई विचार होगा। कोई छिद्रान्वेषी यह कह सकता है कि इससे संस्थानों को बस एक पर्याप्त आश्रय मिल जाता है यह कहने को कि वे वास्तविकता से वास्ता रखते हैं। वे अक्सर परिभाषाएँ बदल भी देते हैं (Grafton et al., 2023) जिसका मतलब है कि डेटा अनुकूल नहीं हैं।

न्यू यॉर्क में होनेवाली बैठक में इसकी भी संभावना न के बराबर ही है कि विकसित देशों की उपयोगिताओं द्वारा प्रदान किए जा रहे जल की गुणवत्ता पर से लगातार उठते यकीन जैसे बढ़ते मामलों पर कोई विचार-विमर्श होगा। जापान, अमेरिका और कई यूरोपीय देशों जैसे राष्ट्रों में लोगों की निरंतर बढ़ती संख्या अब सीधे नल का पानी नहीं पीती क्योंकि उन्हें मिल रहे जल की गुणवत्ता पर से उनका विश्वास धीरे-धीरे उठा चुका है। लगभग सभी विकासशील देशों में परिवारों को अब उन्हें प्राप्त हो रहे जल की गुणवत्ता पर कोई भरोसा नहीं रह गया है, और इसीलिए पेयजल हेतु वे विभिन्न प्रकार की ट्रीटमेंट सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं। भरोसे की यह कमी अब एक महत्त्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा बनता जा रहा है।

एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू जिस पर पर्याप्त ध्यान न दिए जाने के आसार हैं, यह है कि किस प्रकार जल उपयोगिताएँ 2050 से 2070 के बीच अपने पूंजीगत निवेशों व परिचालनात्मक गतिविधियों के चलते कार्बन तटस्थ बन सकती हैं। हमें उन विकासशील देशों में उपयोगिताओं की अधिक जानकारी नहीं है जहां कार्बन तटस्थता पर गंभीर रूप से ध्यान दिया जा रहा है। विकसित देशों में भी, हालांकि परिचालनात्मक गतिविधियों को कार्बन तटस्थ बनाने के लिए कुछ कार्रवाइयां की जा रही हैं, फिर भी उनकी पूंजीगत व्यय गतिविधियों को कार्बन तटस्थ बनाना तब तक एक अत्यंत दुष्कर कार्य रहेगा जब तक कि कार्बन कैप्चर, अनुक्रमण व संभावित उपयोग हेतु नई व किफ़ायती प्रौद्योगिकी विकसित न कर ली जाए। कम से कम अगले 10-15 वर्षों तक तो ऐसा होने का कोई आसार नहीं है।

जल के क्षेत्र में होनेवाली एक बड़ी समस्या यह है कि दशकों से जल प्रबंधन में वृद्धिशील प्रगति हो रही है, जो कि शायद अगले 10-20 वर्षों तक भी जारी रहेगी। फिर भी जल प्रबंधन और भी अधिक जटिल होता जा रहा है जिसके लिए कुछ अलग विचार करना तथा नए व नवोन्मेषी हल निकालना बहुत ज़रूरी हो गया है। आवश्यक समाधानों तथा संभावित रूप से जो उपयोग होनेवाला है उसके बीच की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है (आकृति 1)।

आकृति 1. वृद्धिशील उन्नति तथा जल की सुरक्षा सुनश्चित करने हेतु आवश्यक बदलावों के बीच की बढ़ती दूरी। स्रोत : लेखक का खुद का निष्कर्ष

फिर भी जल संबंधी पेशों में उन्हीं 70-80 वर्ष पुराने घिसे-पिटे विचारों पर काम हो रहा है, जैसे कि समेकित जल संसाधन प्रबंधन या फिर इंटीग्रेटेड रिवर बेसिन मैनेजमेंट, जो कि अब बिलकुल भी प्रासंगिक नहीं रह गए हैं, विशेष तौर पर मैक्रो व मीज़ो स्तर की परियोजनाओं के लिए।

दुर्भाग्यवश इसकी बहुत अधिक संभावना है कि ऐसी अप्रासंगिक हो चुकी अवधारणाओं को निहित स्वार्थ के चलते न्यू यॉर्क में होनेवाले सम्मेलन से और अधिक बढ़ावा मिलेगा।

न्यू यॉर्क में बैठक के समाप्त होने के बाद हमारी योजना है कि परिणामों, तथा इस इवेंट के संभावित भावी प्रभावों का एक निष्पक्ष निर्धारण प्रकाशित किया जाए।

Asit K. Biswas, Distinguished Visiting Professor, University of Glasgow, UK; Director, Water Management International, Singapore; and Chief Executive, Third World Centre for Water Management, Mexico. Cecilia Tortajada, Professor in Practice, School of Interdisciplinary, Studies, University of Glasgow, Glasgow, UK.

This article was published by WATER SCIENCE POLICY, March 13, 2023.